नाथमुनि
नाथमुनि | |
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नाथमुनि (823 ई० - 951 ई०), एक श्री वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक आचार्य थे जिन्होंने 'नालयिर दिव्य प्रबन्धम्' का संग्रह और संकलन किया था। उन्हें श्री रंगनाथमुनि के नाम से भी जाना जाता है। वे आरम्भिक वैष्णव आचार्य माने जाते हैं। वे योगरहस्यम् और न्यायतत्त्वम् की भी रचयिता हैं।
जीवनचरित
[संपादित करें]नाथमुनि के जन्म का नाम अरंगनाथन था। इनका जन्म द्रविण देश के चिदंबरम क्षेत्र के तिरुनारायण पुरम ( कार्टू मन्नार, वर्तमान वीरनारायण पुरम) में 824 ई में हुआ था। आपके पिता का नाम ईश्वर भटटर था । आपका विवाह वंगीपुराचार्य की पुत्री अरविंदजा से हुआ था जिससे ईश्वरमुनि पुत्र का जन्म हुआ था। ईश्वर मुनि अल्पकाल में दिवंगत हो गए थे। ईश्वरमुनि के पुत्र यमुनाचार्य हुए। ये भी श्री सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हुए थे। नाथमुनि को ब्रज भूमि और यमुना बहुत प्रिय था। इस कारण वे अपने पौत्र का नाम यमुनाचार्य रखा था। प्रतीत होता है इनका नाम संभवतः एक तीर्थयात्रा की स्मृति के रूप में रखा गया था । नाथमुनि अपने बेटे (ईश्वर मुनि) और बहू के साथ यमुना के तट पर गए थे। वे श्रीरंगम में अपने दो भतीजों को भी भजन सिखाये थे। इसके अलावा उन्होंने श्री रंगनाथस्वामी मंदिर, श्रीरंगम में श्रीरंगम मंदिर सेवा में भी लिया था जहां वे मंदिर प्रशासक रहे थे। उन्होंनेन्हों ने उत्तर भारत के अनेक तीर्थों की यात्रा में बहुत समय बिताया था। ब्रज की प्रेम लक्षणा नारदीय भक्ति का उन्होंने दक्षिण में व्यापक प्रचार किया था। आपने आलवारोंं के प्रबंधों के खोज के लिए अनेक यात्राएं की थी। आप सिद्ध योगी थे। समाधि अवस्था में आपको श्री शठकोपाचार्य का साक्षात्कार हुआ था। जिनके कृपा प्रसाद से आपको 4000 दिव्य प्रबंधों की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण आप चार भागों में दिव्य प्रबंधकम का संकलन किया था।
समाधि अवस्था में आपने श्री शठकोपा जी से वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की थी। आपने रहस्यार्थ सहित मंत्रों का ज्ञान प्राप्त किया था । आपके ही प्रयत्नों से श्रीरंगम में भगवान के मंदिर में आलवार भक्तों के पद्यों के संगीतमय गायन का प्रारम्भ हुआ था। [1] नाथमुनि स्वा मीजी के प्रयास से प्राप्त इन दिव्य प्रबंधों के कारण ही आज श्री वैष्णव साम्प्रदाय का ऐश्वर्य हमें प्राप्त हुआ हैं । इनके बिना यह प्राप्त होना दुर्लभ था । आल्वन्दार स्वामी जी , नाथमुनि स्वामीजी के पौत्र अपने स्तोत्र रत्न में नाथमुनि की प्रशंसा शुरुआत के तीन श्लोकों मे करते हैं । पहले श्लोक में बताते हैं की ” मैं उन नाथमुनि को प्राणाम करता हुँ जो अतुलनीय हैं, विलक्षण हैं और एम्पेरुमानार् के अनुग्रह से अपरिमित ज्ञान भक्ति और वैराग्य के पात्र हैं ।
दूसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनि जी के चरण कमलों का, इस भौतिक जगत और अलौकिक जगत में आश्रय लेता हूँ जिन्हें मधु राक्षस को वध करने वाले (भगवान श्री कृष्ण) के श्री पाद कमलों पर परिपूर्ण आस्था , भक्ति और शरणागति ज्ञान हैं” । तीसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथ मुनिजी की सेवा करता हूँ जिन्हें अच्युत के लिए असीमित प्रेम हो निज ज्ञान के प्रतीक हैं , जो अमृत के सागर हैं , जो बद्ध जीवात्माओ के उज्जीवन के लिए प्रकट हुए हैं, जो भक्ति में निमग्न रहते हैं और जो योगियों के महा राजा हैं ।" उनके अन्तिम और चौथे श्लोक में एम्पेरुमान् से विनति करते हैं की, उनकी उपलब्धियों को न देखकर , बल्कि उनके दादा की उपलब्धियाँ और शरणागति देखकर मुझे अपनी तिरुवेडी का दास स्वीकार किया जाय । इन चारो श्लोक से नाथमुनि जी के महान वैभव की जानकारी होती है ।
उनके दीर्घजीवी होने (४०० वर्ष जीवित रहने) की बात भी कही जाती है। यह संभावना है कि चोल राजाओं द्वारा नियंत्रित उस क्षेत्र में अपनी महानता के शिखर पर पहुंचने से पहले नाथमुनि सौ वर्षों से थोड़ा अधिक समय तक रहे। माना जाता है कि वह मधुरकवि अलवर की परम्परा के जीवनकाल में ही रहे थे । नाथमुनि के साथ संपर्क में था नम्मलवार द्वारा सत्यापित किया जाता है गुरु-परम्परा, दिव्या सूरी चरित , और प्रप्पन्नामरता भी साक्षी है।
अपना अंतिम समय निकट जान कर नाथमुनि स्वामीजी, आस पास की परिस्थिथो से विस्मरित हो एम्पेरुमान के ध्यान में निमग्न रहते थे । एक दिन उनसे मिलने राजा और रानी आते है । ध्यानमग्न स्वामीजी को देख , राजा और रानी लौट जाते है । प्रभु-प्रेम , लगन और भक्ति में मग्न, नाथमुनि स्वामीजी को ऐसा आभास होता है की भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आए और उनको ध्यानमग्न अवस्था में देखकर वापस लौट गये है, अपने इस आभास से दुखी हो श्रीनाथमुनि राजा और रानी की ओर दौड़ते है।
अगली बार शिकार से लौटते हुए राजा, रानी, एक शिकारी, एक वानर के साथ उनसे मिलने के लिए आते हैं । इस बार भी नाथमुनि स्वामीजी को ध्यान मग्न देख , राजा फिर से लौट जाते हैं । नाथमुनि जी को इस बार यह लगता हैं की श्री रामचन्द्र, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी उन्हें दर्शन देने पधारे हैं , पर उन्हें ध्यान मग्न देख लौट गये और इसी आभास में , नाथमुनि उनके दर्शन पाने उनके पीछे दौड़ते हैं । जब वह छवि उनकी आँखों से ओझल हो जाती हैं, भगवान से वियोग सहन न कर पाने के कारण नाथमुनि मूर्छित हो 924 ई में प्राणों को छोड़ देते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते हैं । यह समाचार सुनकर तुरन्त ईश्वर मुनि, शिष्यबृन्द के साथ वहाँ पहुँचते हैं और उनके अन्तिम कर्म संपन्न कराते है ।
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- श्रीमन्नाथ मुनि
- योगरहस्यम् (संस्कृत विकिस्रोत)
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ गीताप्रेस भक्तमाल पृष्ठ 336