अत-तौबा
ٱلتَّوْبَة अत-तौबा पश्चाताप | |
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वर्गीकरण | मदिनी सूरा |
वैकल्पिक शीर्षक(अर.) | البراءة (बेगुनाही) |
अन्य नाम | ("परित्याग") |
स्थान | पारा १० से ११ |
हिज़्ब क्रमांक | १९ से २१ |
रुकू की संख्या | १६ |
शब्दों की संख्या | २,५०५ |
अक्षरो की संख्या | ११,११५ |
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क़ुरआन |
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विषय-वस्तु (अवयव) |
अत-तौबा : क़ुरआन का 9 वां अध्याय (सूरा)।
सूरए तौबा मदीना में नाज़िल हुआ और इसमें एक सौ उनतीस (129) आयतें हैं
(ऐ मुसलमानों) जिन मुषरिकों से तुम लोगों ने सुलह का एहद किया था अब ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ से उनसे (एक दम) बेज़ारी है (1)
तो (ऐ मुषरिकों) बस तुम चार महीने (ज़ीकादा, जिल हिज्जा, मुहर्रम रजब) तो (चैन से बेख़तर) रूए ज़मीन में सैरो सियाहत (घूम फिर) कर लो और ये समझते रहे कि तुम (किसी तरह) ख़़ुदा को आजिज़ नहीं कर सकते और ये भी कि ख़़ुदा काफ़िरों को ज़रूर रूसवा करके रहेगा (2)
और ख़़ुदा और उसके रसूल की तरफ से हज अकबर के दिन (तुम) लोगों को मुनादी की जाती है कि ख़़ुदा और उसका रसूल मुषरिकों से बेज़ार (और अलग) है तो (मुषरिकों) अगर तुम लोगों ने (अब भी) तौबा की तो तुम्हारे हक़ में यही बेहतर है और अगर तुम लोगों ने (इससे भी) मुॅह मोड़ा तो समझ लो कि तुम लोग ख़़ुदा को हरगिज़ आजिज़ नहीं कर सकते और जिन लोगों ने कुफ्र इख़्तेयार किया उनको दर्दनाक अज़ाब की ख़ुष ख़बरी दे दो (3)
मगर (हाँ) जिन मुषरिकों से तुमने एहदो पैमान किया था फिर उन लोगों ने भी कभी कुछ तुमसे (वफ़ा एहद में) कमी नहीं की और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी की मदद की हो तो उनके एहद व पैमान को जितनी मुद्द्त के वास्ते मुक़र्रर किया है पूरा कर दो ख़़ुदा परहेज़गारों को यक़ीनन दोस्त रखता है (4)
और (ऐ रसूल) अगर मुषरिकीन में से कोई तुमसे पनाह मागें तो उसको पनाह दो यहाँ तक कि वह ख़़ुदा का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की जगह वापस पहुँचा दो ये इस वजह से कि
(जब) मुषरिकीन ने ख़ुद एहद षिकनी (तोड़ा) की तो उन का कोई एहदो पैमान ख़़ुदा के नज़दीक और उसके रसूल के नज़दीक क्योंकर (क़ायम) रह सकता है मगर जिन लोगों से तुमने खानाए काबा के पास मुआहेदा किया था तो वह लोग (अपनी एहदो पैमान) तुमसे क़ायम रखना चाहें तो तुम भी उन से (अपना एहद) क़ायम रखो बेषक ख़ुदा (बद एहदी से) परहेज़ करने वालों को दोस्त रखता है (7) (उनका एहद) क्योंकर (रह सकता है) जब (उनकी ये हालत है) कि अगर तुम पर ग़लबा पा जाएॅ तो तुम्हारे में न तो रिष्ते नाते ही का लिहाज़ करेगें और न अपने क़ौल व क़रार का ये लोग तुम्हें अपनी ज़बानी (जमा खर्च में) खुष कर देते हैं हालाॅकि उनके दिल नहीं मानते और उनमें के बहुतेरे तो बदचलन हैं (8) और उन लोगों ने ख़ुदा की आयतों के बदले थोड़ी सी क़ीमत (दुनियावी फायदे) हासिल करके (लोगों को) उसकी राह से रोक दिया बेषक ये लोग जो कुछ करते हैं ये बहुत ही बुरा है (9) ये लोग किसी मोमिन के बारे में न तो रिष्ता नाता ही कर लिहाज़ करते हैं और न क़ौल का क़रार का और (वाक़ई) यही लोग ज़्यादती करते हैं (10) तो अगर (अभी मुषरिक से) तौबा करें और नमाज़ पढ़ने लगें और ज़कात दें तो तुम्हारे दीनी भाई हैं और हम अपनी आयतों को वाक़िफकार लोगों के वास्ते तफ़सीलन बयान करते हैं (11) और अगर ये लोग एहद कर चुकने के बाद अपनी क़समें तोड़ डालें और तुम्हारे दीन में तुमको ताना दें तो तुम कुफ्र के सरवर आवारा लोगों से खूब लड़ाई करो उनकी क़समें का हरगिज़ कोई एतबार नहीं ताकि ये लोग (अपनी ्यरारत से) बाज़ आएँ (12) (मुसलमानों) भला तुम उन लोगों से क्यों नहीं लड़ते जिन्होंने अपनी क़समों को तोड़ डाला और रसूल को निकाल बाहर करना (अपने दिल में) ठान लिया था और तुमसे पहले छेड़ भी उन्होनंे ही ्युरू की थी क्या तुम उनसे डरते हो तो अगर तुम सच्चे ईमानदार हो तो ख़़ुदा उनसे कहीं बढ़ कर तुम्हारे डरने के क़ाबिल है (13) इनसे (बेख़ौफ (ख़तर) लड़ो ख़ुदा तुम्हारे हाथों उनकी सज़ा करेगा और उन्हें रूसवा करेगा और तुम्हें उन पर फतेह अता करेगा और इमानदार लोगों के कलेजे ठन्डे करेगा (14) और उन मोनिनीन के दिल की क़ुदरतें जो (कुफ़्फ़ार से पहुचॅती है) दफ़ा कर देगा और ख़़ुदा जिसकी चाहे तौबा क़ुबूल करे और ख़़ुदा बड़ा वाक़िफकार (और) हिकमत वाला है (15) क्या तुमने ये समझ लिया है कि तुम (यॅू ही) छोड़ दिए जाओगे और अभी तक तो ख़ुदा ने उन लोगों को मुमताज़ किया ही नहीं जो तुम में के (राहे ख़़ुदा में) जिहाद करते हैं और ख़़ुदा और उसके रसूल और मोमेनीन के सिवा किसी को अपना राज़दार दोस्त नहीं बनाते और जो कुछ भी तुम करते हो ख़़ुदा उससे बाख़बर है (16) मुषरेकीन का ये काम नहीं कि जब वह अपने कुफ्ऱ का ख़ुद इक़रार करते हैं तो ख़ुदा की मस्जिदों को (जाकर) आबाद करे यही वह लोग हैं जिनका किया कराया सब अकारत हुआ और ये लोग हमेषा जहन्नुम में रहेंगे (17)
ख़़ुदा की मस्जिदों को बस सिर्फ वहीं ्यख़्स (जाकर) आबाद कर सकता है जो ख़़ुदा और रोजे़ आख़िरत पर ईमान लाए और नमाज़ पढ़ा करे और ज़कात देता रहे और ख़़ुदा के सिवा (और) किसी से न डरो तो अनक़रीब यही लोग हिदायत याफ़्ता लोगों में से हो जाएॅगें (18) क्या तुम लोगों ने हाजियों की सक़ाई (पानी पिलाने वाले) और मस्जिदुल हराम (ख़ानाए काबा की आबादियों को उस ्यख़्स के हमसर (बराबर) बना दिया है जो ख़ुदा और रोज़े आख़ेरत के दिन पर ईमान लाया और ख़ुदा के राह में जेहाद किया ख़़ुदा के नज़दीक तो ये लोग बराबर नहीं और खुदा ज़ालिम लोगों की हिदायत नहीं करता है (19) जिन लोगों ने ईमान क़़ुबूल किया और (ख़़ुदा के लिए) हिजरत एख़्तियार की और अपने मालों से और अपनी जानों से ख़़ुदा की राह में जिहाद किया वह लोग ख़़ुदा के नज़दीक दर्जें में कही बढ़ कर हैं और यही लोग (आला दर्जे पर) फायज़ होने वाले हैं (20) उनका परवरदिगार उनको अपनी मेहरबानी और ख़ुषनूदी और ऐसे (हरे भरे) बाग़ों की ख़ुषख़बरी देता है जिसमें उनके लिए दाइमी ऐष व (आराम) होगा (21) और ये लोग उन बाग़ों में हमेषा अब्दआलाबाद (हमेषा हमेषा) तक रहेंगे बेषक ख़ुदा के पास तो बड़ा बड़ा अज्र व (सवाब) है (22)
ऐ ईमानदारों अगर तुम्हारे माँ बाप और तुम्हारे (बहन) भाई ईमान के मुक़ाबले कुफ्ऱ को तरजीह देते हो तो तुम उनको (अपना) ख़ैर ख़्वाह (हमदर्द) न समझो और तुममें जो ्यख़्स उनसे उलफ़त रखेगा तो यही लोग ज़ालिम है (23) (ऐ रसूल) तुम कह दो तुम्हारे बाप दादा और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई बन्द और तुम्हारी बीबियाँ और तुम्हारे कुनबे वाले और वह माल जो तुमने कमा के रख छोड़ा हैं और वह तिजारत जिसके मन्द पड़ जाने का तुम्हें अन्देषा है और वह मकानात जिन्हें तुम पसन्द करते हो अगर तुम्हें ख़ुदा से और उसके रसूल से और उसकी राह में जिहाद करने से ज़्यादा अज़ीज़ है तो तुम ज़रा ठहरो यहाँ तक कि ख़ुदा अपना हुक्म (अज़ाब) मौजूद करे और ख़ुदा नाफरमान लोगों की हिदायत नहीं करता (24) (मुसलमानों) ख़ुदा ने तुम्हारी बहुतेरे मक़ामात पर (ग़ैबी) इमदाद की और (ख़ासकर) जंग हुनैन के दिन जब तुम्हें अपनी क़सरत (तादाद) ने मग़रूर कर दिया था फिर वह क़सरत तुम्हें कुछ भी काम न आयी और (तुम ऐसे घबराए कि) ज़मीन बावजूद उस वसअत (फैलाव) के तुम पर तंग हो गई तुम पीठ कर भाग निकले (25) तब ख़़ुदा ने अपने रसूल पर और मोमिनीन पर अपनी (तरफ से) तसकीन नाज़िल फरमाई और (रसूल की ख़ातिर से) फ़रिष्तों के लष्कर भेजे जिन्हें तुम देखते भी नहीं थे और कुफ़्फ़ार पर अज़ाब नाज़िल फरमाया और काफिरों की यही सज़ा है (26) उसके बाद ख़़ुदा जिसकी चाहे तौबा क़ुबूल करे और ख़़ुदा बड़ा बख़्षने वाला मेहरबान है (27) ऐ ईमानदारों मुषरेकीन तो निरे नजिस हैं तो अब वह उस साल के बाद मस्जिदुल हराम (ख़ाना ए काबा) के पास फिर न फटकने पाएँ और अगर तुम (उनसे जुदा होने में) फक़रों फाक़ा से डरते हो तो अनकरीब ही ख़ुदा तुमको अगर चाहेगा तो अपने फज़ल (करम) से ग़नीकर देगा बेषक ख़ुदा बड़ा वाक़िफकार हिकमत वाला है (28) एहले किताब में से जो लोग न तो (दिल से) ख़ुदा ही पर इमान रखते हैं और न रोज़े आखि़रत पर और न ख़ुदा और उसके रसूल की हराम की हुयी चीज़ों को हराम समझते हैं और न सच्चे दीन ही को एख़्तियार करते हैं उन लोगों से लड़े जाओ यहाँ तक कि वह लोग ज़लील होकर (अपने) हाथ से जज़िया दे (29) यहूद तो कहते हैं कि अज़ीज़ ख़़ुदा के बेटे हैं और नुसैरा कहते हैं कि मसीहा (ईसा) ख़़ुदा के बेटे हैं ये तो उनकी बात है और (वह ख़ुद) उन्हीं के मुँह से ये लोग भी उन्हीं काफ़िरों की सी बातें बनाने लगे जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं ख़़ुद उनको क़त्ल (तहस नहस) करके (देखो तो) कहाँ से कहाँ भटके जा रहे हैं (30) उन लोगों ने तो अपने ख़़ुदा को छोड़कर अपनी आलिमों को और अपने ज़ाहिदों को और मरियम के बेटे मसीह को अपना परवरदिगार बना डाला हालाॅकि उन्होनें सिवाए इसके और हुक्म ही नहीं दिया गया कि ख़़ुदाए यकता (सिर्फ़ ख़ुदा) की इबादत करें उसके सिवा (और कोई क़ाबिले परसतिष नहीं) (31) जिस चीज़ को ये लोग उसका ्यरीक़ बनाते हैं वह उससे पाक व पाक़ीजा है ये लोग चाहते हैं कि अपने मुँह से (फूॅक मारकर) ख़़ुदा के नूर को बुझा दें और ख़़ुदा इसके सिवा कुछ मानता ही नहीं कि अपने नूर को पूरा ही करके रहे (32) अगरचे कुफ़्फ़ार बुरा माना करें वही तो (वह ख़़ुदा) है कि जिसने अपने रसूल (मोहम्मद) को हिदायत और सच्चे दीन के साथ (मबऊस करके) भेजता कि उसको तमाम दीनो पर ग़ालिब करे अगरचे मुषरेकीन बुरा माना करे (33) ऐ ईमानदारों इसमें उसमें ्यक नहीं कि (यहूद व नसारा के) बहुतेरे आलिम ज़ाहिद लेागों के मालेनाहक़ (नाहक़) चख जाते है और (लोगों को) ख़़ुदा की राह से रोकते हैं और जो लोग सोना और चाँदी जमा करते जाते हैं और उसको ख़़ुदा की राह में खर्च नहीं करते तो (ऐ रसूल) उन को दर्दनाक अज़ाब की ख़ुषखबरी सुना दो (34)
(जिस दिन वह (सोना चाँदी) जहन्नुम की आग में गर्म (और लाल) किया जाएगा फिर उससे उनकी पेषानियाँ और उनके पहलू और उनकी पीठें दाग़ी जाएॅगी (और उनसे कहा जाएगा) ये वह है जिसे तुमने अपने लिए (दुनिया में) जमा करके रखा था तो (अब) अपने जमा किए का मज़ा चखो (35) इसमें तो ्यक ही नहीं कि ख़ुदा ने जिस दिन आसमान व ज़मीन को पैदा किया (उसी दिन से) ख़ुदा के नज़दीक ख़़ुदा की किताब (लौहे महफूज़) में महीनों की गिनती बारह महीने है उनमें से चार महीने (अदब व) हुरमत के हैं यही दीन सीधी राह है तो उन चार महीनों में तुम अपने ऊपर (कुष्त व ख़ून (मार काट) करके) ज़़ुल्म न करो और मुषरेकीन जिस तरह तुम से सबके बस मिलकर लड़ते हैं तुम भी उसी तरह सबके सब मिलकर उन से लड़ों और ये जान लो कि ख़़ुदा तो यक़ीनन परहेज़गारों के साथ है (36) महीनों का आगे पीछे कर देना भी कुफ्ऱ ही की ज़्यादती है कि उनकी बदौलत कुफ़्फ़ार (और) बहक जाते हैं एक बरस तो उसी एक महीने को हलाल समझ लेते हैं और (दूसरे) साल उसी महीने को हराम कहते हैं ताकि ख़़ुदा ने जो (चार महीने) हराम किए हैं उनकी गिनती ही पूरी कर लें और ख़ुदा की हराम की हुयी चीज़ को हलाल कर लें उनकी बुरी (बुरी) कारस्तानियाॅ उन्हें भली कर दिखाई गई हैं और खुदा काफिर लोगो को मंज़िले मक़सूद तक नहीं पहुँचाया करता (37) ऐ ईमानदारों तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है कि ख़़ुदा की राह में (जिहाद के लिए) निकलो तो तुम लदधड़ (ढीले) हो कर ज़मीन की तरफ झुके पड़ते हो क्या तुम आखि़रत के बनिस्बत दुनिया की (चन्द रोज़ा) जिन्दगी को पसन्द करते थे तो (समझ लो कि) दुनिया कीे ज़िन्दगी का साज़ो सामान (आखि़र के) ऐष व आराम के मुक़ाबले में बहुत ही थोड़ा है (38) अगर (अब भी) तुम न निकलोगे तो ख़़ुदा तुम पर दर्दनाक अज़ाब नाज़िल फरमाएगा और (ख़़ुदा कुछ मजबरू तो है नहीं) तुम्हारे बदले किसी दूसरी क़ौम को ले आएगा और तुम उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते और ख़़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है (39) अगर तुम उस रसूल की मदद न करोगे तो (कुछ परवाह् नहीं ख़़ुदा मददगार है) उसने तो अपने रसूल की उस वक़्त मदद की जब उसकी कुफ़्फ़ार (मक्का) ने (घर से) निकल बाहर किया उस वक़्त सिर्फ (दो आदमी थे) दूसरे रसूल थे जब वह दोनो ग़ार (सौर) में थे जब अपने साथी को (उसकी गिरिया व ज़ारी (रोने) पर) समझा रहे थे कि घबराओ नहीं ख़़ुदा यक़ीनन हमारे साथ है तो ख़़ुदा ने उन पर अपनी (तरफ से) तसकीन नाज़िल फरमाई और (फ़रिष्तों के) ऐसे लष्कर से उनकी मदद की जिनको तुम लोगों ने देखा तक नहीं और ख़ुदा ने काफिरों की बात नीची कर दिखाई और ख़़ुदा ही का बोल बाला है और ख़़ुदा तो ग़ालिब हिकमत वाला है (40) (मुसलमानों) तुम हलके फुलके (हॅसते) हो या भारी भरकम (मसलह) बहर हाल जब तुमको हुक्म दिया जाए फौरन चल खड़े हो और अपनी जानों से अपने मालों से ख़़ुदा की राह में जिहाद करो अगर तुम (कुछ जानते हो तो) समझ लो कि यही तुम्हारे हक़ में बेहतर है (41) (ऐ रसूल) अगर सरे दस्त फ़ायदा और सफर आसान होता तो यक़ीनन ये लोग तुम्हारा साथ देते मगर इन पर मुसाफ़त (सफ़र) की मषक़क़त (सख़्ती) तूलानी हो गई और अगर पीछे रह जाने की वज़ह से पूछोगे तो ये लोग फौरन ख़़ुदा की क़समें खाॅएगें कि अगर हम में सकत होती तो हम भी ज़रूर तुम लोगों के साथ ही चल खड़े होते ये लोग झूठी कसमें खाकर अपनी जान आप हलाक किए डालते हैं और ख़ुदा तो जानता है कि ये लोग बेषक झूठे हैं (42) (ऐ रसूल) ख़़ुदा तुमसे दरगुज़र फरमाए तुमने उन्हें (पीछे रह जाने की) इजाज़त ही क्यों दी ताकि (तुम) अगर ऐसा न करते तो) तुम पर सच बोलने वाले (अलग) ज़ाहिर हो जाते और तुम झूटों को (अलग) मालूम कर लेते (43) (ऐ रसूल) जो लोग (दिल से) ख़़ुदा और रोज़े आखि़रत पर ईमान रखते हैं वह तो अपने माल से और अपनी जानों से जिहाद (न) करने की इजाज़त माॅगने के नहीं (बल्कि वह ख़ुद जाएॅगें) और ख़़ुदा परहेज़गारों से खूब वाक़िफ है (44) (पीछे रह जाने की) इजाज़त तो बस वही लोग माॅगेंगे जो ख़़ुदा और रोजे़ आखि़रत पर ईमान नहीं रखते और उनके दिल (तरह तरह) के ्यक कर रहे है तो वह अपने ्यक में डावाॅडोल हो रहे हैं (45) (कि क्या करें क्या न करें) और अगर ये लोग (घर से) निकलने की ठान लेते तो (कुछ न कुछ सामान तो करते मगर (बात ये है) कि ख़़ुदा ने उनके साथ भेजने को नापसन्द किया तो उनको काहिल बना दिया और (गोया) उनसे कह दिया गया कि तुम बैठने वालों के साथ बैठे (मक्खी मारते) रहो (46) अगर ये लोग तुममें (मिलकर) निकलते भी तो बस तुममे फ़साद ही बरपा कर देते और तुम्हारे हक़ में फ़ितना कराने की ग़रज़ से तुम्हारे दरम्यिान (इधर उधर) घोड़े दौड़ाते फिरते और तुममें से उनके जासूस भी हैं (जो तुम्हारी उनसे बातें बयान करते हैं) और ख़़ुदा ्यरीरों से ख़ूब वाक़िफ़ है (47) (ए रसूल) इसमें तो ्यक नहीं कि उन लोगों ने पहले ही फ़साद डालना चाहा था और तुम्हारी बहुत सी बातें उलट पुलट के यहाॅ तक कि हक़ आ पहुॅचा और ख़़ुदा ही का हुक्म ग़ालिब रहा और उनको नागवार ही रहा (48) उन लोगों में से बाज़ ऐसे भी हैं जो साफ कहते हैं कि मुझे तो (पीछे रह जाने की) इजाज़त दीजिए और मुझ बला में न फॅसाइए (ऐ रसूल) आगाह हो कि ये लोग खुद बला में (औंधे मुँह) गिर पड़े और जहन्नुम तो काफिरों का यक़ीनन घेरे हुए ही हैं (49) तुमको कोई फायदा पहुॅचा तो उन को बुरा मालूम होता है और अगर तुम पर कोई मुसीबत आ पड़ती तो ये लोग कहते हैं कि (इस वजह से) हमने अपना काम पहले ही ठीक कर लिया था और (ये कह कर) ख़ुष (तुम्हारे पास से उठकर) वापस लौटतें है (50) (ऐ रसूल) तुम कह दो कि हम पर हरगिज़ कोई मुसीबत पड़ नहीं सकती मगर जो ख़़ुदा ने तुम्हारे लिए (हमारी तक़दीर में) लिख दिया है वही हमारा मालिक है और ईमानदारों को चाहिए भी कि ख़़ुदा ही पर भरोसा रखें (51)
(ऐ रसूल) तुम मुनाफिकों से कह दो कि तुम तो हमारे वास्ते (फतेह या ्यहादत) दो भलाइयों में से एक के ख़्वाह मख़्वाह मुन्तज़िर ही हो और हम तुम्हारे वास्ते उसके मुन्तज़िर हैं कि ख़़ुदा तुम पर (ख़ास) अपने ही से कोई अज़ाब नाज़िल करे या हमारे हाथों से फिर (अच्छा) तुम भी इन्तेज़ार करो हम भी तुम्हारे साथ (साथ) इन्तेज़ार करते हैं (52) (ऐ रसूल) तुम कह दो कि तुम लोग ख़्वाह ख़ुषी से खर्च करो या मजबूरी से तुम्हारी ख़ैरात तो कभी कु़बूल की नहीं जाएगी तुम यक़ीनन बदकार लोग हो (53) और उनकी ख़ैरात के क़ुबूल किए जाने में और कोई वजह मायने नहीं मगर यही कि उन लोगों ने ख़़ुदा और उसके रसूल की नाफ़रमानी की और नमाज़ को आते भी हैं तो अलकसाए हुए और ख़़ुदा की राह में खर्च करते भी हैं तो बे दिली से (54) (ऐ रसूल) तुम को न तो उनके माल हैरत में डाले और न उनकी औलाद (क्योंकि) ख़़ुदा तो ये चाहता है कि उनको आल व माल की वजह से दुनिया की (चन्द रोज़) ज़िन्दगी (ही) में मुबितलाए अज़ाब करे और जब उनकी जानें निकलें तब भी वह काफिर (के काफिर ही) रहें (55) और (मुसलमानों) ये लोग ख़ुदा की क़सम खाएॅगें फिर वह तुममें ही के हैं हालाॅकि वह लोग तुममें के नहीं हैं मगर हैं ये लोग बुज़दिल हैं (56) कि गर कहीं ये लोग पनाह की जगह (क़िले) या (छिपने के लिए) ग़ार या घुस बैठने की कोई (और) जगह पा जाएॅ तो उसी तरफ रस्सियाँ तोड़ाते हुए भाग जाएँ (57) (ऐ रसूल) उनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जो तुम्हें ख़ैरात (की तक़सीम) में (ख़्वाह मा ख़्वाह) इल्ज़ाम देते हैं फिर अगर उनमे से कुछ (माक़ूल मिक़दार (हिस्सा)) दे दिया गया तो खुष हो गए और अगर उनकी मर्ज़ी के मुवाफिक़ उसमें से उन्हें कुछ नहीं दिया गया तो बस फौरन ही बिगड़ बैठे (58) और जो कुछ ख़ुदा ने और उसके रसूल ने उनको अता फरमाया था अगर ये लोग उस पर राज़ी रहते और कहते कि ख़़ुदा हमारे वास्ते काफी है (उस वक़्त नहीं तो) अनक़रीब ही खुदा हमें अपने फज़ल व करम से उसका रसूल दे ही देगा हम तो यक़ीनन अल्लाह ही की तरफ लौ लगाए बैठे हैं (59) (तो उनका क्या कहना था) ख़ैरात तो बस ख़ास फकीरों का हक़ है और मोहताजों का और उस (ज़कात वग़ैरह) के कारिन्दों का और जिनकी तालीफ़ क़लब की गई है (उनका) और (जिन की) गर्दनों मेें (गुलामी का फन्दा पड़ा है उनका) और ग़द्दारों का (जो ख़ुदा से अदा नहीं कर सकते) और खुदा की राह (जिहाद) में और परदेसियों की किफ़ालत में ख़र्च करना चाहिए ये हुकूक़ ख़़ुदा की तरफ से मुक़र्रर किए हुए हैं और ख़़ुदा बड़ा वाक़िफ कार हिकमत वाला है (60) और उसमें से बाज़ ऐसे भी हैं जो (हमारे) रसूल को सताते हैं और कहते हैं कि बस ये कान ही (कान) हैं (ऐ रसूल) तुम कह दो कि (कान तो हैं मगर) तुम्हारी भलाई सुन्ने के कान हैं कि ख़़ुदा पर ईमान रखते हैं और मोमिनीन की (बातों) का यक़ीन रखते हैं और तुममें से जो लोग ईमान ला चुके हैं उनके लिए रहमत और जो लोग रसूले ख़़ुदा को सताते हैं उनके लिए दर्दनाक अज़ाब हैं (61) (मुसलमानों) ये लोग तुम्हारे सामने ख़़ुदा की क़समें खाते हैं ताकि तुम्हें राज़ी कर ले हालाॅकि अगर ये लोग सच्चे ईमानदार है (62) तो ख़ुदा और उसका रसूल कहीं ज़्यादा हक़दार है कि उसको राज़ी रखें क्या ये लोग ये भी नहीं जानते कि जिस ्यख़्स ने ख़़ुदा और उसके रसूल की मुख़ालेफ़त की तो इसमें ्यक ही नहीं कि उसके लिए जहन्नुम की आग (तैयार रखी) है (63) जिसमें वह हमेषा (जलता भुनता) रहेगा यही तो बड़ी रूसवाई है मुनाफे़क़ीन इस बात से डरतें हैं कि (कहीं ऐसा न हो) इन मुलसमानों पर (रसूल की माअरफ़त) कोई सूरा नाज़िल हो जाए जो उनको जो कुछ उन मुनाफिक़ीन के दिल में है बता दे (ऐ रसूल) तुम कह दो कि (अच्छा) तुम मसख़रापन किए जाओ (64) जिससे तुम डरते हो ख़़ुदा उसे ज़रूर ज़ाहिर कर देगा और अगर तुम उनसे पूछो (कि ये हरकत थी) तो ज़रूर यूॅ ही कहेगें कि हम तो यूॅ ही बातचीत (दिल्लगी) बाज़ी ही कर रहे थे तुम कहो कि हाए क्या तुम ख़़ुदा से और उसकी आयतों से और उसके रसूल से हॅसी कर रहे थे (65) अब बातें न बनाओं हक़ तो ये हैं कि तुम ईमान लाने के बाद काफ़िर हो बैठे अगर हम तुममें से कुछ लोगों से दरगुज़र भी करें तो हम कुछ लोगों को सज़ा ज़रूर देगें इस वजह से कि ये लोग कुसूरवार ज़रूर हैं (66) मुनाफिक़ मर्द और मुनाफिक़ औरतें एक दूसरे के बाहम जिन्स हैं कि (लोगों को) बुरे काम का तो हुक्म करते हैं और नेक कामों से रोकते हैं और अपने हाथ (राहे ख़ुदा में ख़र्च करने से) बन्द रखते हैं (सच तो यह है कि) ये लोग ख़़ुदा को भूल बैठे तो ख़़ुदा ने भी (गोया) उन्हें भुला दिया बेषक मुनाफ़िक़ बदचलन है (67) मुनाफिक़ मर्द और मुनाफिक़ औरतें और काफिरों से ख़़ुदा ने जहन्नुम की आग का वायदा तो कर लिया है कि ये लोग हमेषा उसी में रहेगें और यही उन के लिए काफ़ी है और ख़़ुदा ने उन पर लानत की है और उन्हीं के लिए दाइमी (हमेषा रहने वाला) अज़ाब है (68) (मुनाफिक़ो तुम्हारी तो) उनकी मसल है जो तुमसे पहले थे वह लोग तुमसे कू़वत में (भी) ज़्यादा थे और औलाद में (भी) कही बढ़ कर तो वह अपने हिस्से से भी फ़ायदा उठा हो चुके तो जिस तरह तुम से पहले लोग अपने हिस्से से फायदा उठा चुके हैं इसी तरह तुम ने अपने हिस्से से फायदा उठा लिया और जिस तरह वह बातिल में घुसे रहे उसी तरह तुम भी घुसे रहे ये वह लोग हैं जिन का सब किया धरा दुनिया और आखि़रत (दोनों) में अकारत हुआ और यही लोग घाटे में हैं (69) क्या इन मुनाफिक़ों को उन लोगों की ख़बर नहीं पहुँची है जो उनसे पहले हो गुज़रे हैं नूह की क़ौम और आद और समूद और इबराहीम की क़ौम और मदियन वाले और उलटी हुयी बस्तियों के रहने वाले कि उनके पास उनके रसूल वाजेए (और रौषन) मौजिज़े लेाकर आए तो (वह मुब्तिलाए अज़ाब हुए) और ख़ुदा ने उन पर जुल्म नहीं किया मगर ये लोग ख़ुद अपने ऊपर जुल्म करते थे (70) और ईमानदार मर्द और ईमानदार औरते उनमें से बाज़ के बाज़ रफीक़ है और नामज़ पाबन्दी से पढ़ते हैं और ज़कात देते हैं और ख़़ुदा और उसके रसूल की फरमाबरदारी करते हैं यही लोग हैं जिन पर ख़़ुदा अनक़रीब रहम करेगा बेषक ख़़ुदा ग़ालिब हिकमत वाला है (71) ख़़ुदा ने ईमानदार मर्दों और ईमानदारा औरतों से (बेहषत के) उन बाग़ों का वायदा कर लिया है जिनके नीचे नहरें जारी हैं और वह उनमें हमेषा रहेगें (बेहष्त) अदन के बाग़ोे में उम्दा उम्दा मकानात का (भी वायदा फरमाया) और ख़़ुदा की ख़़ुषनूदी उन सबसे बालातर है- यही तो बड़ी (आला दर्जे की) कामयाबी है (72) ऐ रसूल कुफ़्फ़ार के साथ (तलवार से) और मुनाफिकों के साथ (ज़बान से) जिहाद करो और उन पर सख़्ती करो और उनका ठिकाना तो जहन्नुम ही है और वह (क्या) बुरी जगह है (73) ये मुनाफे़क़ीन ख़़ुदा की क़समें खाते है कि (कोई बुरी बात) नहीं कही हालाॅकि उन लोगों ने कुफ्ऱ का कलमा ज़रूर कहा और अपने इस्लाम के बाद काफिर हो गए और जिस बात पर क़ाबू न पा सके उसे ठान बैठे और उन लोगें ने (मुसलमानों से) सिर्फ इस वजह से अदावत की कि अपने फज़ल व करम से ख़़ुदा और उसके रसूल ने दौलत मन्द बना दिया है तो उनके लिए उसमें ख़ैर है कि ये लोग अब भी तौबा कर लें और अगर ये न मानेगें तो ख़ुदा उन पर दुनिया और आखि़रत में दर्दनाक अज़ाब नाज़िल फरमाएगा और तमाम दुनिया में उन का न कोई हामी होगा और न मददगार (74) और इन (मुनाफे़की़न) में से बाज़ ऐसे भी हैं जो ख़़ुदा से क़ौल क़रार कर चुके थे कि अगर हमें अपने फज़ल (व करम) से (कुछ माल) देगा तो हम ज़रूर ख़ैरात किया करेगें और नेकोकार बन्दे हो जाएॅगें (75) तो जब ख़ुदा ने अपने फज़ल (व करम) से उन्हें अता फरमाया-तो लगे उसमें बुख़्ल करने और कतराकर मुॅह फेरने (76) फिर उनसे उनके ख़ामयाजे़ (बदले) में अपनी मुलाक़ात के दिन (क़यामत) तक उनके दिल में (गोया खुद) निफाक डाल दिया इस वजह से उन लोगों ने जो ख़़ुदा से वायदा किया था उसके खि़लाफ किया और इस वजह से कि झूठ बोला करते थे (77) क्या वह लोग इतना भी न जानते थे कि ख़ुदा (उनके) सारे भेद और उनकी सरगोषी (सब कुछ) जानता है और ये कि ग़ैब की बातों से ख़ूब आगाह है (78) जो लोग दिल खोलकर ख़ैरात करने वाले मोमिनीन पर (रियाकारी का) और उन मोमिनीन पर जो सिर्फ अपनी ्यफ़क़कत (मेहनत) की मज़दूरी पाते (्येख़ी का) इल्ज़ाम लगाते हैं फिर उनसे मसख़रापन करते तो ख़़ुदा भी उन से मसख़रापन करेगा और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है (79) (ऐ रसूल) ख़्वाह तुम उन (मुनाफिक़ों) के लिए मग़फिरत की दुआ माॅगों या उनके लिए मग़फिरत की दुआ न माॅगों (उनके लिए बराबर है) तुम उनके लिए सत्तर बार भी बख़्षिष की दुआ मांगोगे तो भी ख़ुदा उनको हरगिज़ न बख़्षेगा ये (सज़ा) इस सबब से है कि उन लोगों ने ख़़ुदा और उसके रसूल के साथ कुफ्र किया और ख़़ुदा बदकार लोगों को मंज़िलें मकसूद तक नहीं पहुँचाया करता (80) (जंगे तबूक़ में) रसूले ख़़ुदा के पीछे रह जाने वाले अपनी जगह बैठ रहने (और जिहाद में न जाने) से ख़ुष हुए और अपने माल और आपनी जानों से ख़ुदा की राह में जिहाद करना उनको मकरू मालूम हुआ और कहने लगे (इस) गर्मी में (घर से) न निकलो (ऐ रसूल) तुम कह दो कि जहन्नुम की आग (जिसमें तुम चलोगे उससे कहीं ज़्यादा गर्म है (81) अगर वह कुछ समझें जो कुछ वह किया करते थे उसके बदले उन्हें चाहिए कि वह बहुत कम हॅसें और बहुत रोएँ (82) तो (ऐ रसूल) अगर ख़ुदा तुम इन मुनाफेक़ीन के किसी गिरोह की तरफ (जिहाद से सहीसालिम) वापस लाए फिर तुमसे (जिहाद के वास्ते) निकलने की इजाज़त माँगें तो तुम साफ़ कह दो कि तुम मेरे साथ (जिहाद के वास्ते) हरगिज़ न निकलने पाओगे और न हरगिज़ दुष्मन से मेरे साथ लड़ने पाओगे जब तुमने पहली मरतबा (घर में) बैठे रहना पसन्द किया तो (अब भी) पीछे रह जाने वालों के साथ (घर में) बैठे रहो (83) और (ऐ रसूल) उन मुनाफिक़ीन में से जो मर जाए तो कभी ना किसी पर नमाजे़ जनाज़ा पढ़ना और न उसकी क़ब्र पर (जाकर) खडे़ होना इन लोगों ने यक़ीनन ख़़ुदा और उसके रसूल के साथ कुफ्ऱ किया और बदकारी की हालत में मर (भी) गए (84) और उनके माल और उनकी औलाद (की कसरत) तुम्हें ताज्जुब (हैरत) मंे न डाले (क्योकि) ख़ुदा तो बस ये चाहता है कि दुनिया में भी उनके माल और औलाद की बदौलत उनको अज़ाब में मुब्तिला करे और उनकी जान निकालने लगे तो उस वक़्त भी ये काफ़िर (के काफ़िर ही) रहें (85) और जब कोई सूरा इस बारे में नाज़िल हुआ कि ख़़ुदा को मानों और उसके रसूल के साथ जिहाद करो तो जो उनमें से दौलत वाले हैं वह तुमसे इजाज़त मांगते हैं और कहते हैं कि हमें (यहीं छोड़ दीजिए) कि हम भी (घर बैठने वालो के साथ (बैठे) रहें (86) ये इस बात से ख़ुष हैं कि पीछे रह जाने वालों (औरतों, बच्चों, बीमारो के साथ बैठे) रहें और (गोया) उनके दिल
पर मुहर कर दी गई तो ये कुछ नहीं समझतें (87) मगर रसूल और जो लोग उनके साथ ईमान लाए हैं उन लोगों ने अपने अपने माल और अपनी अपनी जानों से जिहाद किया- यही वह लोग हैं जिनके लिए (हर तरह की) भलाइयाँ हैं और यही लोग कामयाब होने वाले हैं (88) ख़़ुदा ने उनके वास्ते (बेहष्त) के वह (हरे भरे) बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके (दरख़्तों के) नीचे नहरे जारी हैं (और ये) इसमें हमेषा रहेंगें यही तो बड़ी कामयाबी हैं (89) और (तुम्हारे पास) कुछ हीला करने वाले गवार देहाती (भी) आ मौजदू हुए ताकि उनको भी (पीछे रह जाने की) इजाज़त दी जाए और जिन लोगों ने ख़़ुदा और उसके रसूल से झूठ कहा था वह (घर में) बैठ रहे (आए तक नहीं) उनमें से जिन लोगांे ने कुफ्ऱ एख़्तेयार किया अनक़रीब ही उन पर दर्दनाक अज़ाब आ पहुँचेगा (90) (ऐ रसूल जिहाद में न जाने का) न तो कमज़ोरों पर कुछ गुनाह है न बीमारों पर और न उन लोगों पर जो कुछ नहीं पाते कि ख़र्च करें बषर्ते कि ये लोग ख़़ुदा और उसके रसूल की ख़ैर ख़्वाही करें नेकी करने वालों पर (इल्ज़ाम की) कोई सबील नहीं और ख़़ुदा बड़ा बख़्षने वाला मेहरबान है (91) और न उन्हीं लोगों पर कोई इल्ज़ाम है जो तुम्हारे पास आए कि तुम उनके लिए सवारी बाहम पहुँचा दो और तुमने कहा कि मेरे पास (तो कोई सवारी) मौजूद नहीं कि तुमको उस पर सवार करूँ तो वह लोग (मजबूरन) फिर गए और हसरत (व अफसोस) उसे उस ग़म में कि उन को ख़र्च मयस्सर न आया (92) उनकी आँखों से आँसू जारी थे (इल्ज़ाम की) सबील तो सिर्फ उन्हीं लोगों पर है जिन्होंने बावजूद मालदार होने के तुमसे (जिहाद में) न जाने की इजाज़त चाही और उनके पीछे रह जाने वाले (औरतों, बच्चों) के साथ रहना पसन्द आया और ख़़ुदा ने उनके दिलों पर (गोया) मुहर कर दी है तो ये लोग कुछ नहीं जानते (93) जब तुम उनके पास (जिहाद से लौट कर) वापस आओगे तो ये (मुनाफिक़ीन) तुमसे (तरह तरह) की माअज़रत करेंगे (ऐ रसूल) तुम कह दो कि बातें न बनाओ हम हरग़िज़ तुम्हारी बात न मानेंगे (क्योंकि) हमे तो ख़़ुदा ने तुम्हारे हालात से आगाह कर दिया है अनक़ीरब ख़़ुदा और उसका रसूल तुम्हारी कारस्तानी को मुलाहज़ा फरमाएगें फिर तुम ज़ाहिर व बातिन के जानने वालों (ख़ुदा) की हुज़ूरी में लौटा दिए जाओगे तो जो कुछ तुम (दुनिया में) करते थे (ज़र्रा ज़र्रा) बता देगा (94) जब तुम उनके पास (जिहाद से) वापस आओगे तो तुम्हारे सामने ख़ुदा की क़समें खाएगें ताकि तुम उनसे दरगुज़र करो तो तुम उनकी तरफ से मुँह फेर लो बेषक ये लोग नापाक हैं और उनका ठिकाना जहन्नुम है (ये) सज़ा है उसकी जो ये (दुनिया में) किया करते थे (95) तुम्हारे सामने ये लोग क़समें खाते हैं ताकि तुम उनसे राज़ी हो (भी) जाओ तो ख़ुदा बदकार लोगों से हरगिज़ कभी राज़ी नहीं होगा (96) (ये) अरब के गॅवार देहाती कुफ्र व निफाक़ में बड़े सख़्त हैं और इसी क़ाबिल हैं कि जो किताब ख़ुदा ने अपने रसूल पर नाज़िल फरमाई है उसके एहक़ाम न जानें और ख़ुदा तो बड़ा दाना हकीम है (97) और कुछ गॅवार देहाती (ऐसे भी हैं कि जो कुछ ख़ुदा की) राह में खर्च करते हैं उसे तावान (जुर्माना) समझते हैं और तुम्हारे हक़ में (ज़माने की) गर्दिषों के मुन्तज़िर (इन्तेज़ार में) हैं उन्हीं पर (ज़माने की) बुरी गर्दिष पड़े और ख़ुदा तो सब कुछ सुनता जानता है (98) और कुछ देहाती तो ऐसे भी हैं जो ख़ुदा और आखि़रत पर ईमान रखते हैं और जो कुछ खर्च करते हैं उसे ख़ुदा
की (बारगाह में) नज़दीकी और रसूल की दुआओं का ज़रिया समझते हैं आगाह रहो वाक़ई ये (ख़ैरात) ज़रूर उनके तक़र्रुब (क़रीब होने का) का बाइस है ख़ुदा उन्हें बहुत जल्द अपनी रहमत में दाख़िल करेगा बेषक ख़ुदा बड़ा बख़्षने वाला मेहरबान है (99) और मुहाजिरीन व अन्सार में से (ईमान की तरफ) सबक़त (पहल) करने वाले और वह लोग जिन्होंने नेक नीयती से (कुबूले ईमान में उनका साथ दिया ख़ुदा उनसे राज़ी और वह ख़़ुदा से ख़ुष और उनके वास्ते ख़़ुदा ने (वह हरे भरे) बाग़ जिन के नीचे नहरें जारी हैं तैयार कर रखे हैं वह हमेषा अब्दआलाबाद (हमेषा) तक उनमें रहेगें यही तो बड़ी कामयाबी हैं (100) और (मुसलमानों) तुम्हारे एतराफ़ (आस पास) के गॅवार देहातियों में से बाज़ मुनाफिक़ (भी) हैं और ख़ुद मदीने के रहने वालों में से भी (बाज़ मुनाफिक़ हैं) जो निफ़ाक पर अड़ गए हैं (ऐ रसूल) तुम उन को नहीं जानते (मगर) हम उनको (ख़ूब) जानते हैं अनक़रीब हम (दुनिया में) उनकी दोहरी सज़ा करेगें फिर ये लोग (क़यामत में) एक बड़े अज़ाब की तरफ लौटाए जाएॅगें (101) और कुछ लोग हैं जिन्होंने अपने गुनाहों का (तो) एकरार किया (मगर) उन लोगों ने भले काम को और कुछ बुरे काम को मिला जुला (कर गोलमाल) कर दिया क़रीब है कि ख़़ुदा उनकी तौबा कु़बूल करे (क्योंकि) ख़़ुदा तो यक़ीनी बड़ा बख़्षने वाला मेहरबान हैं (102) (ऐ रसूल) तुम उनके माल की ज़कात लो (और) इसकी बदौलत उनको (गुनाहो से) पाक साफ करों और उनके वास्ते दुआएॅ ख़ैर करो क्योंकि तुम्हारी दुआ इन लोगों के हक़ में इत्मेनान (का बाइस है) और ख़़ुदा तो (सब कुछ) सुनता (और) जानता है (103) क्या इन लोगों ने इतने भी नहीं जाना यक़ीनन ख़़ुदा बन्दों की तौबा क़़ुबूल करता है और वही ख़ैरातें (भी) लेता है और इसमें ्यक नहीं कि वही तौबा का बड़ा कु़़बूल करने वाला मेहरबान है (104) और (ऐ रसूल) तुम कह दो कि तुम लोग अपने अपने काम किए जाओ अभी तो ख़़ुदा और उसका रसूल और मोमिनीन तुम्हारे कामों को देखेगें और बहुत जल्द (क़यामत में) ज़ाहिर व बातिन के जानने वाले (ख़ुदा) की तरफ लौटाए जाएॅगें तब वह जो कुछ भी तुम करते थे तुम्हें बता देगा (105) और कुछ लोग हैं जो हुक्मे ख़़ुदा के उम्मीदवार किए गए हैं (उसको अख़्तेयार है) ख़्वाह उन पर अज़ाब करे या उन पर मेहरबानी करे और ख़़ुदा (तो) बड़ा वाकिफकार हिकमत वाला है (106) और (वह लोग भी मुनाफिक़ हैं) जिन्होने (मुसलमानों के) नुकसान पहुॅचाने और कुफ्ऱ करने वाले और मोमिनीन के दरम्यिान तफरक़ा (फूट) डालते और उस ्यख़्स की घात में बैठने के वास्ते मस्जिद बनाकर खड़ी की है जो ख़ुदा और उसके रसूल से पहले लड़ चुका है (और लुत्फ़ तो ये है कि) ज़रूर क़समें खाएगें कि हमने भलाई के सिवा कुछ और इरादा ही नहीं किया और ख़़ुदा ख़ुद गवाही देता है (107) ये लोग यक़ीनन झूठे है (ऐ रसूल) तुम इस (मस्जिद) में कभी खड़े भी न होना वह मस्जिद जिसकी बुनियाद अव्वल रोज़ से परहेज़गारी पर रखी गई है वह ज़रूर उसकी ज़्यादा हक़दार है कि तुम उसमें खडे़ होकर (नमाज़ पढ़ो क्योंकि) उसमें वह लोग हैं जो पाक व पाकीज़ा रहने को पसन्द करते हैं और ख़ुदा भी पाक व पाकीज़ा रहने वालों को दोस्त रखता है (108) क्या जिस ्यख़्स ने ख़़ुदा के ख़ौफ और ख़ुषनूदी पर अपनी इमारत की बुनियाद डाली हो वह ज़्यादा अच्छा है या वह ्यख़्स जिसने अपनी इमारत की बुनियाद इस बोदे किनारे के लब पर रखी हो जिसमें दरार पड़ चुकी हो और अगर वह चाहता हो फिर उसे ले दे के जहन्नुम की आग में फट पडे़ और ख़ुदा ज़ालिम लोगों को मंज़िलें मक़सूद तक नहीं पहुॅचाया करता (109) (ये इमारत की) बुनियाद जो उन लोगों ने क़ायम की उसके सबब से उनके दिलो में हमेषा धरपकड़ रहेगी यहाँ तक कि उनके दिलों के परख़चे उड़ जाएँ और ख़़ुदा तो बड़ा वाक़िफकार हकीम हैं (110) इसमें तो ्यक ही नहीं कि ख़ुदा ने मोमिनीन से उनकी जानें और उनके माल इस बात पर ख़रीद लिए हैं कि (उनकी क़ीमत) उनके लिए बेहष्त है (इसी वजह से) ये लोग ख़़ुदा की राह में लड़ते हैं तो (कुफ़्फ़ार को) मारते हैं और ख़ुद (भी) मारे जाते हैं (ये) पक्का वायदा है (जिसका पूरा करना) ख़़ुदा पर लाज़िम है और ऐसा पक्का है कि तौरैत और इन्जील और क़ुरान (सब) में (लिखा हुआ है) और अपने एहद का पूरा करने वाला ख़़ुदा से बढ़कर कौन है तुम तो अपनी ख़रीद फरोख़्त से जो तुमने ख़़ुदा से की है खुषियाँ मनाओ यही तो बड़ी कामयाबी है (111) (ये लोग) तौबा करने वाले इबादत गुज़ार (ख़़ुदा की) हम्दो सना (तारीफ़) करने वाले (उस की राह में) सफर करने वाले रूकूउ करने वाले सजदा करने वाले नेक काम का हुक्म करने वाले और बुरे काम से रोकने वाले और ख़ुदा की (मुक़र्रर की हुयी) हदो को निगाह रखने वाले हैं और (ऐ रसूल) उन मोमिनीन को (बेहिष्त की) ख़ुषख़बरी दे दो (112) नबी और मोमिनीन पर जब ज़ाहिर हो चुका कि मुषरेकीन जहन्नुमी है तो उसके बाद मुनासिब नहीं कि उनके लिए मग़फिरत की दुआएॅ माँगें अगरचे वह मुषरेकीन उनके क़राबतदार हो (क्यों न) हो (113) और इबराहीम का अपने बाप के लिए मग़फिरत की दुआ माँगना सिर्फ इस वायदे की वजह से था जो उन्होंने अपने बाप से कर लिया था फिर जब उनको मालूम हो गया कि वह यक़ीनी ख़़ुदा का दुष्मन है तो उससे बेज़ार हो गए, बेषक इबराहीम यक़ीनन बड़े दर्दमन्द बुर्दबार (सहन करने वाले) थे (114) ख़़ुदा की ये ्यान नहीं कि किसी क़ौम को जब उनकी हिदायत कर चुका हो उसके बाद बेषक ख़़ुदा उन्हें गुमराह कर दे हता (यहां तक) कि वह उन्हीं चीज़ों को बता दे जिससे वह परहेज़ करें बेषक ख़ुदा हर चीज़ से (वाक़िफ है) (115) इसमें तो ्यक ही नहीं कि सारे आसमान व ज़मीन की हुकूमत ख़़ुदा ही के लिए ख़ास है वही (जिसे चाहे) जिलाता है और (जिसे चाहे) मारता है और तुम लोगों का ख़़ुदा के सिवा न कोई सरपरस्त है न मददगार (116) अलबत्ता ख़़ुदा ने नबी और उन मुहाजिरीन अन्सार पर बड़ा फज़ल किया जिन्होंने तंगदस्ती के वक़्त रसूल का साथ दिया और वह भी उसके बाद कि क़रीब था कि उनमे ंसे कुछ लोगों के दिल जगमगा जाएँ फिर ख़ुदा ने उन पर (भी) फज़ल किया इसमें ्यक नहीं कि वह उन लोगों पर पड़ा तरस खाने वाला मेहरबान है (117) और उन यमीमों पर (भी फज़ल किया) जो (जिहाद से पीछे रह गए थे और उन पर सख़्ती की गई) यहाँ तक कि ज़मीन बावजूद उस वसअत (फैलाव) के उन पर तंग हो गई और उनकी जानें (तक) उन पर तंग हो गई और उन लोगों ने समझ लिया कि ख़़ुदा के सिवा और कहीं पनाह की जगह नहीं फिर ख़़ुदा ने उनको तौबा की तौफीक दी ताकि वह (ख़़ुदा की तरफ) रूजू करें बेषक ख़़ुदा ही बड़ा तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान है (118) ऐ ईमानदारों ख़़ुदा से डरो और सच्चों के साथ हो जाओ (119) मदीने के रहने वालों और उनके गिर्दोनवाॅ (आस पास) देहातियों को ये जायज़ न था कि रसूल ख़़ुदा का साथ छोड़ दें और न ये (जायज़ था) कि रसूल की जान से बेपरवा होकर अपनी जानों के बचाने की फ्रिक करें ये हुक्म उसी सब्ब से था कि उन (जिहाद करने वालों) को ख़़ुदा की रूह में जो तकलीफ़ प्यास की या मेहनत या भूख की षिद्दत की पहुँचती है या ऐसी राह चलते हैं जो कुफ़्फ़ार के ग़ैज़ (ग़ज़ब का बाइस हो या किसी दुष्मन से कुछ ये लोग हासिल करते हैं तो बस उसके ऐवज़ में (उनके नामए अमल में) एक नेक काम लिख दिया जाएगा बेषक ख़ुदा नेकी करने वालों का अज्र (व सवाब) बरबाद नहीं करता है (120) और ये लोग (ख़़ुदा की राह में) थोड़ा या बहुत माल नहीं खर्च करते और किसी मैदान को नहीं क़तआ करते मगर फौरन (उनके नामाए अमल में) उनके नाम लिख दिया जाता है ताकि ख़ुदा उनकी कारगुज़ारियों का उन्हें अच्छे से अच्छा बदला अता फरमाए (121) और ये भी मुनासिब नहीं कि मोमिननि कुल के कुल (अपने घरों में) निकल खड़े हों उनमें से हर गिरोह की एक जमाअत (अपने घरों से) क्यों नहीं निकलती ताकि इल्मे दीन हासिल करे और जब अपनी क़ौम की तरफ पलट के आवे तो उनको (अज्र व आखि़रत से) डराए ताकि ये लोग डरें (122) ऐ इमानदारों कुफ्फार में से जो लोग तुम्हारे आस पास के है उन से लड़ों और (इस तरह लड़ना) चाहिए कि वह लोग तुम में करारापन महसूस करें और जान रखो कि बेषुबहा ख़ुदा परहेज़गारों के साथ है (123)
और जब कोई सूरा नाज़िल किया गया तो उन मुनाफिक़ीन में से (एक दूसरे से) पूछता है कि भला इस सूरे ने तुममें से किसी का ईमान बढ़ा दिया तो जो लोग ईमान ला चुके हैं उनका तो इस सूरे ने ईमान बढ़ा दिया और वह वहाँ उसकी ख़ुषियाँ मनाते है (124) मगर जिन लोगों के दिल में (निफाक़ की) बीमारी है तो उन (पिछली) ख़बासत पर इस सूरो ने एक ख़बासत और बढ़ा दी और ये लोग कुफ्ऱ ही की हालत में मर गए (125) क्या वह लोग (इतना भी) नहीं देखते कि हर साल एक मरतबा या दो मरतबा बला में मुबितला किए जाते हैं फिर भी न तो ये लोग तौबा ही करते हैं और न नसीहत ही मानते हैं (126) और जब कोई सूरा नाज़िल किया गया तो उसमें से एक की तरफ एक देखने लगा (और ये कहकर कि) तुम को कोई मुसलमान देखता तो नहींे है फिर (अपने घर) पलट जाते हैं (ये लोग क्या पलटेगें गोया) ख़ुदा ने उनके दिलों को पलट दिया है इस सबब से कि ये बिल्कुल नासमझ लोग हैं (127) लोगों तुम ही में से (हमारा) एक रसूल तुम्हारे पास आ चुका (जिसकी ्यफ़क़्क़त (मेहरबानी) की ये हालत है कि) उस पर ्याक़ (दुख) है कि तुम तकलीफ उठाओ और उसे तुम्हारी बेहूदी का हौका है इमानदारो पर हद दर्जे ्यफीक़ मेहरबान हैं (128) ऐ रसूल अगर इस पर भी ये लोग (तुम्हारे हुक्म से) मुँह फेरें तो तुम कह दो कि मेरे लिए ख़ुदा काफी है उसके सिवा कोई माबूद नहीं मैने उस पर भरोसा रखा है वही अर्ष (ऐसे) बुर्जूग (मख़लूका का) मालिक है (129)
सूरए तौबा ख़त्म
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]पिछला सूरा: अल-अनफ़ाल |
क़ुरआन | अगला सूरा: सूरा यूनुस |
सूरा 09 - अत-तौबा | ||
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