Papers by DR.Vibha Thakur
सबलोक, 2021
पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान यदि कहीं है तो वह है सिर्फ रसोईघर । बैठक में बति... more पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान यदि कहीं है तो वह है सिर्फ रसोईघर । बैठक में बतियाते पुरूष और रसोईघर में खटती हुई स्त्रियां अच्छी लगती हैं । दृश्य उल्ट जाएं तो धोर कलयुग कहा जाएगा ।इस मिथ को कुछ हद तोड़ने की कोशिशें हो रही है लेकिन अभी भी बहुत से पूर्वाग्रहों को बदलने की जरूरत है ।आज भी दूर देहातों में मीलों चलकर पानी लाती औरतों के दृश्य हमें व्यथित नही करते क्योंकि यह काम तो औरतों के ही जिम्मे हैं। बिडम्बना देखिए मनुष्य ही नही मनुष्येत्तर प्राणियों में भी नर नही मादा ही पोषण की जिम्मेदारी का निर्वहन करती है
इंडिया फेमिनिज्म, 2021
मध्ययुगीन समाज में सामाजिक ,आर्थिक, पारिवारिक परतंत्रता के बीच स्त्री के लिए भक्ति का अधिकार पुरू... more मध्ययुगीन समाज में सामाजिक ,आर्थिक, पारिवारिक परतंत्रता के बीच स्त्री के लिए भक्ति का अधिकार पुरूष वर्चस्व को चुनौती देने के बराबर था । इस चुनौती का स्वर मीरा के काव्य में देखा जा सकती है ।कृष्णभक्त मीरा का नाम सब जानते हैं परंतु मीरा के समान ताज भी कृष्ण की अनन्य भक्त थी । अनुमानित तिथि के अनुसार इनका समय 1700 ईस्वी के आसपास माना जाता है । मुस्लिम स्त्री होने के नाते मीरा के मुकाबले ताज की मुश्किलें ज्यादा थी। लिंग और धर्म की सीमाओं को लांघते हुए कृष्ण प्रेम की दीवानी ताज ने स्पष्टता और निर्भिकता के साथ कृष्ण भक्ति के वरण की धोषणा करते हुए साफ शब्दों में कहा था 'मैं जन्म से भले ही मुगलानी हूं किंतु कृष्ण के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मै स्वयं को हिन्दुस्तानी मानती हूं । 'नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै।/ हूं तो मुगलानी हिंदूआनी ह्वेरहूंगी मैं ... ऐसी निर्भिकता आज भी दुर्लभ है । कल्पना कीजिए की उस युग में ताज की इस स्वीकारोक्ति का क्या परिणाम हुआ होगा। उसे कट्टरपंथियों का कितना विरोध सहना पड़ा होगा ।
लोकगीत : अपनी यौनिकता से लेकर औरतों की शिकायतों तक की अभिव्यक्ति का जरिया , 2021
-पुरुष जीवन की संपूर्ण इकाई है इसलिए उनका चित्रण लोकगीतों का आवश्यक एवं आधारभूत विषय है।लोकगीत म... more -पुरुष जीवन की संपूर्ण इकाई है इसलिए उनका चित्रण लोकगीतों का आवश्यक एवं आधारभूत विषय है।लोकगीत में बिना दुराव छिपाव के जनमानस के भाव अभिव्यक्त होते हैं इसलिए ये गीत अपने लगते है।दैनांदिन के चित्रों से सजे इन गीतों में निजी अनुभव व स्मृतियां बसे होने के कारण ही ये लोक के कंठो में अपना स्थान बना पातें हैं । इन गीतों में लोक परंपरा, व संस्कृति के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष संबंधों के अंतरंगी सुंदर चित्र बिखरे हुए हैं ।इन चित्रों में जीवन के संघर्षों के बीच विश्राम के क्षणों में दामंपत्य प्रेम के आत्मिक व आंतरिक एकाकार क्षणों के रंगीन दृश्य स्त्री कंठ से निकले गीतों में साकार हो उठते है । प्रेम के मधुर एहसास उन्मुक्त भावों के रूप में अभिव्यक्ति पातें हैं । जिस अभिव्यक्ति की आजादी के लिए शिष्ट साहित्य में स्त्रियों को स्त्री विमर्श का आंदोलन खड़ा करना पड़ता है वहीं आजादीं बिना किसी हो हल्ला के कब उसने अपने नाम किया यह कोई नहीं जानता । सभ्य समाज में स्त्री यौनिकता की बातें दबे छिपे शब्दों में की जाती है और इस पर बात करने वाली स्त्रियों को बोल्ड और अश्लीलता के तमगे दिए जाते हैं । लेकिन लोक में अश्लील कुछ नहीं होता।
ललद्यद की लोकभाषा कश्मीरी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही ... more ललद्यद की लोकभाषा कश्मीरी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही । यह वो युग था जब कश्मीर संस्कृत साहित्य का गढ़ माना जाता था जहां अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, जैसे सिद्ध कवि-लेखक संस्कृत में रचना कर रहे थे । वहीं पहली बार ललद्यद शैव दर्शन की सहज अभिव्यक्ति लोकभाषा में ही कर रहीं थीं । यहीं वजह है कि उन्हें कश्मीर की आदि कवयित्री कहा जाता है ।सहज निश्छल भावों से लवरेज उनके वाखों को इतनी प्रसिद्धि मिली कि वह कश्मीरी हिंदू और मुसलमान दोनों के ही कंठहार बन गए । वे शिव भक्तिन थीं लेकिन उनकी कविताएं धार्मिक कट्टरताओं की सीमाओं से बंधे नहीं थे इसलिए उनके पद जनमानस को प्रभावित आज भी करते थे ।
एका आंदोलन के सूत्रधार मदारी पासी का जिनका जन्म हरदोई जिले के मोहनखेड़ा गांव में हुआ था । उन्ह... more एका आंदोलन के सूत्रधार मदारी पासी का जिनका जन्म हरदोई जिले के मोहनखेड़ा गांव में हुआ था । उन्होंने अवध में शोषित पीड़ित किसान को संगठित कर जमींदारों के शोषण के विरूद्ध एकाआंदोलन चलाया ,जिसका विस्तार हरदोई, सीतापुर , बाराबंकी , लखनऊ, शाहजहांपुर सहित कई जिलों तक हुआ । औपनिवेशिक दमन से त्रस्त भारतीयों किसानों के प्रतिरोध और ऐसे आंदोलनों के व्यापक प्रभाव को लंदन के अखबार तक कवर कर रहें थे किंतु भारतीय अखबार इस विषय पर चुप्पी साधे हुए थे । स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर चलने वाले इस बड़े किसान आंदोलन को इतिहास की पुस्तकों में विशेष स्थान नहीं मिला हैं । शायद यही वजह है कि इस आंदोलन के जननायक मदारी पासी को वो सम्मान और श्रेय नहीं दिया गया जिसके वे असली हकदार थे ।
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