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भैरव

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भैरव
दुष्टों को दंड देने वाले और भक्तों की रक्षा करने वाले देवता

भैरव रूपी भगवान शिव ब्रह्मा का पांचवा शीश काटते हुए
अन्य नाम दण्डपाणी , स्वस्वा , भैरवीवल्लभ, दंडधारि, भैरवनाथ , बटुकनाथ आदि।
देवनागरी भैरव
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संबंध शिव, रुद्र
मंत्र ॐ श्री भैरवनाथाय नमः
अस्त्र डंडा, त्रिशूल, डमरू, चंवर, ब्रह्मा का पांचवा शीश , खप्पर और तलवार
युद्ध अंधक वध
दिवस मंगलवार और रविवार
जीवनसाथी भैरवी
सवारी काला कुत्ता
त्यौहार भैरव जयंती
भैरवनाथ के शांत रूप की प्रतिमा

भैरव या भैरवनाथ (शाब्दिक अर्थ- 'जो देखने में भयंकर हो' या जो भय से रक्षा करता है ; भीषण ; भयानक) हिन्दू धर्म में शिव के पांचवे अवतार माने जाते हैं।

शैव धर्म में, भैरव शिव के विनाश से जुड़ा एक उग्र अवतार हैं। त्रिक प्रणाली में भैरव परम ब्रह्म के पर्यायवाची, सर्वोच्च वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। आमतौर पर हिंदू धर्म में, भैरव को 'दंडपाणि' (जिसके हाथ में दण्ड हो) और 'स्वस्वा' (जिसका वाहन कुत्ता है) भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध धर्म में, उन्हें बोधिसत्व मंजुश्री का एक उग्र वशीकरण माना जाता है और उन्हें हरुका, वज्रभैरव और यमंतक भी कहा जाता है।[1][2][3][4][5]

वह पूरे भारत, श्रीलंका और नेपाल के साथ-साथ तिब्बती बौद्ध धर्म में भी पूजे जाते हैं।[6]

अकाला- तिब्बत बौद्ध धर्म के रक्षक

हिन्दू और जैन दोनों भैरव की पूजा करते हैं। जैन समुदाय में नाकोड़ा भैरव की पूजा की जाती है।

आकाश भैरव को शरभ भैरव या पक्षीराज भैरव भी कहा जाता है। मान्यता है कि हिरण्यकश्यप का वध करते समय उग्र भगवान नरसिंह को शांत करने के लिए पक्षीराज आकाश भैरव ने अवतार लिया था। आकाश भैरव को भगवान शिव का उग्र रूप भी माना जाता है। आकाश भैरव को 'आकाश का देवता' कहा जाता है। नेपाल के लोग उन्हें महारजन जाति, खासकर किसान समूहों का पूर्वज मानते हैं। आकाश भैरव के सिर पर बनी एक छवि को बौद्ध धर्म में बुद्ध और हिंदू धर्म में ब्रह्मा माना जाता है, इसलिए आकाश भैरव की मूर्ति की पूजा सभी लोग करते हैं।

काल भैरव मंदिर काठमांडू नेपाल
काठमांडू में आकाश कालभैरव

उपासना की दृष्टि से भैरवनाथ एक दयालु और शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं तथा उज्जैन में भैरव बाबा की जागृत प्रतिमा है जो मदिरा पान करती है I

भैरव बाबा की उज्जैन स्थित प्रतिमा जोकि मदिरा पान करती है और जागृत अवस्था में है

भैरव बाबा को सात्विक भोग में हलवा , खीर , गुलगुले ( मीठे पुए ) , जलेबी अत्यधिक पसंद हैं मिठाइयों का भोग भैरव बाबा को लगाकर काले कुत्ते को खिलाना चाहिए और काली उड़द की दाल से बने दही भल्ले , पकोड़े आदि का भोग भैरव बाबा को लगाकर किसी गरीब को खिलाना चाहिए I भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय के देवता हैं और तंत्रशास्त्र में उनकी आराधना को ही प्राधान्य प्राप्त है। तंत्र साधक का मुख्य भैरव भाव से अपने को आत्मसात करना होता है। कोलतार से भी गहरा काला रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड , डमरू त्रिशूल और तलवार, गले में नाग , ब्रह्मा का पांचवां सिर , चंवर और काले कुत्ते की सवारी - यह है भैरव के रूप की कल्पना।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में एक राग का नाम इन्हीं के नाम पर भैरव रखा गया है।

भैरव की पूजा

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भैरव की पूजाप्राय: पूरे भारत में होती है और अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने जाते हैं। महाराष्ट्र में खंडोबा उन्हीं का एक रूप है और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही उनको मान्यता मिली हुई है और उनकी अनेक प्रकार की मनौतियाँ भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता भी हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।

प्राचीन ग्रंथों में भैरव

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शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शिव के रुधिर (रक्त) से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अपने कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार कर रहा था, यहाँ तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा. तब उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई।

कुछ पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। ब्रम्हा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग भैरव की उपासना करते हैं। भैरव की पत्नी देवी पार्वती की अवतार हैं जिनका नाम भैरवी है जब भगवान शिव ने अपने अंश से भैरव को प्रकट किया था तब उन्होंने माँ पार्वती से भी एक शक्ति उत्पन्न करने को कहा जो भैरव की पत्नी होंगी तब माँ पार्वती ने अपने अंश से देवी भैरवी को प्रकट किया जो शिव के अवतार भैरव की पत्नी हैं |

ऐसा भी कहा जाता है की ,ब्रह्मा जी के पाँच मुख हुआ करते थे तथा ब्रह्मा जी पाँचवे वेद की भी रचना करने जा रहे थे,सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव प्रकट हुए और उन्होंने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पाँचवा मुख काट दिया, इस पर भैरव को ब्रह्मा हत्या का पाप भी लगा। भगवान शिव की सहायता से भैरव को काशी में ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली और भगवान शिव ने भैरव को काशी का कोतवाल भी नियुक्त किया। काशी वासियों के लिए भैरव पूजा अनिवार्य बताई गई है। काशी में श्री काशीविश्वनाथ मंदिर और उज्जैन में श्री महाकाल मंदिर में भगवान शिव के दर्शन के बाद जब तक भैरव जी के दर्शन न करें तो न ही श्री महाकाल ज्योतिर्लिंग और न ही श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का फल नहीं मिलता।

१४वीं शताब्दी में निर्मित राजा आदित्यवर्मन की मूर्ति जो भैरव रूप में है। (इण्डोनेशिया राष्ट्रीय संग्रहालय)

भैरव उपासना की शाखाएं[7]

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कालान्तर में भैरव-उपासना की दो शाखाएं- बटुक भैरव तथा काल भैरव के रूप में प्रसिद्ध हुईं। जहाँ बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप में विख्यात हैं वहीं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले प्रचण्ड दंडनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए। वहीं काल भैरव को भैरवनाथ का युवा रूप तो बटुक भैरव को भैरवनाथ का बाल रूप कहा गया है।

पुराणों में भैरव का उल्लेख

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तंत्रशास्त्र में अष्ट-भैरव का उल्लेख है –

  1. असितांग-भैरव,
  2. रुद्र-भैरव,
  3. चंद-भैरव,
  4. क्रोध-भैरव,
  5. उन्मत्त-भैरव,
  6. कपाली-भैरव,
  7. भीषण-भैरव तथा
  8. संहार-भैरव।

कालिका पुराण में भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिवजी का एक गण बताया गया है जिसका वाहन कुत्ता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी

  1. महाभैरव,
  2. संहार भैरव,
  3. असितांग भैरव,
  4. रुद्र भैरव,
  5. कालभैरव
  6. क्रोध भैरव
  7. ताम्रचूड़ भैरव तथा
  8. चंद्रचूड़ भैरव नामक आठ पूज्य भैरवों का निर्देश है। इनकी पूजा करके मध्य में नवशक्तियों की पूजा करने का विधान बताया गया है। शिवमहापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का ही पूर्णरूप बताते हुए लिखा गया है -
भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:।
मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥

भैरव साधना व ध्यान

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ध्यान के बिना साधक मूक सदृश है, भैरव साधना में भी ध्यान की अपनी विशिष्ट महत्ता है। किसी भी देवता के ध्यान में केवल निर्विकल्प-भाव की उपासना को ही ध्यान नहीं कहा जा सकता। ध्यान का अर्थ है - उस देवी-देवता का संपूर्ण आकार एक क्षण में मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित होना। श्री बटुक भैरव जी के ध्यान हेतु इनके सात्विक, राजस व तामस रूपों का वर्णन अनेक शास्त्रों में मिलता है।

जहाँ सात्विक ध्यान - अपमृत्यु का निवारक, आयु-आरोग्य व मोक्षफल की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म, अर्थ व काम की सिद्धि के लिए राजस ध्यान की उपादेयता है, इसी प्रकार कृत्या, भूत, ग्रहादि के द्वारा शत्रु का शमन करने वाला तामस ध्यान कहा गया है। ग्रंथों में लिखा है कि गृहस्थ को सदा भैरवजी के सात्विक ध्यान को ही प्राथमिकता देनी चाहिए।

चित्र:जयगढ़ में भैरव मंदिर.JPG
जयपुर के जयगढ़ किले में स्थित प्राचीन काल भैरव मंदिर

भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर

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राजस्थान के दौसा जिले में बांदीकुई के पास सबडावली गांव में पहाड़ पर श्री चौमुखा भैरवनाथ जी सुप्रसिद्ध मंदिर स्थित है। जहां पर प्रत्येक शनिवार को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पधारते हैं। तथा वहां पर भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को बड़ा मेला लगता है। राजस्थान के चूरू जिले में नौसरिया गाव में भी भेरूजी के मंदिर है

भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर हैं जिनमें काशी का काल भैरव मंदिर सर्वप्रमुख माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है।उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के जैंती तहसील के छोटे से गांव थामथोली में अष्ट भैरव नाथ जी का बहुत पुराना मंदिर स्थापित हैं जिसमें भगवान भैरव नाथ जी के दोनों रूपों की पूजा होती है बटुक भैरव और काल भैरव दोनों रूप यहां दिखाई देते हैं और कई वर्षों से यहां उनकी पूजा की जाती है । उत्तराखंड चमोली जिला के सिरण गाँव में भी भैरव गुफा काफी प्राचीन है। उत्तराखंड में ग्राम मोल्ठी पट्टी पैडुलस्यूं जिला पौड़ी गढवाल मे बालभैरव (जिन्हे स्थानीय भाषा मे नादबुद्व भैरव कहा जाता है) का अति प्राचीन भव्य मंदिर है. मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासको (700 से 1000 ईस्वी) के समय हुआ. इसके अलावा शक्तिपीठो और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है। जयगढ़ के प्रसिद्ध किले में काल-भैरव का बड़ा प्राचीन मंदिर है जिसमें भूतपूर्व महाराजा जयपुर के ट्रस्ट की और से दैनिक पूजा-अर्चना के लिए पारंपरिक-पुजारी नियुक्त हैं। ।

जयपुर जिले के चाकसू कस्बे मे भी प्रसिद बटुक भैरव मंदिर हे जो लगभग आठवी शताब्दी का बना हुआ हे मान्यता हे की जब तक कस्बे के लोग बारिश ऋतु से पहले बटुक भैरव की पूजा नहीं करते तब तक कस्बे मे बारिश नहीं आती । नाथद्वारा के पास ही शिशोदा गाव में भैरुनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है जो सन 1400 ईसा पूर्व का है।

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के ग्राम अदेगाव में भी श्री काल भैरव का मंदिर है जो किले के अंदर है जिसे गढ़ी ऊपर के नाम से जाना जाता है

कहते हैं औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था। जनश्रुतियों के अनुसार कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तो अचानक पागल कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था। उन कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वे तुरंत पागल हो गये और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्होंने काटना शुरू कर दिया। बादशाह को भी अपनी जान बचा कर भागने के लिये विवश हो जाना पड़ा। उसने अपने अंगरक्षकों द्वारा अपने ही सैनिक सिर्फ इसलिये मरवा दिये किं पागल होते सैनिकों का सिलसिला कहीं खु़द उसके पास तक न पहुँच जाए।

भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रतीकवादी रही है और यहाँ की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के प्रतीक उपलब्ध हैं। यह प्रतीक उभयात्मक हैं - अर्थात स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक को ही कहा जाता है -देवता। चूँकि भय भी एक भाव है, अत: उसका भी प्रतीक है - उसका भी एक देवता है और उसी भय का हमारा देवता हैं- महाभैरवरेरर

  • कालभैरव का मंदिर जयपुर जिले की पावटा तहसील के एक गांव पांचुड़ाला में स्थित है जो इस गांव का सबसे प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर का संबंध इस गांव की स्थापना से है।

सन्दर्भ सूची

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  1. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; k1 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  2. Gopal, Madan (1990). Gautam, K.S. (संपा॰). India through the ages. Publication Division, Ministry of Information and Broadcasting, Government of India. पृ॰ 76.
  3. "Bhairava: The Wrathful". मूल से 13 February 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 May 2015.
  4. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; s1 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  5. Wallis, Christopher D. (2013-08-15). Tantra Illuminated: The Philosophy, History, and Practice of a Timeless Tradition (अंग्रेज़ी में). Mattamayura Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-9897613-6-9.
  6. "Bhairava", Wikipedia (अंग्रेज़ी में), 2019-12-05, अभिगमन तिथि 2020-01-02
  7. "रहस्यमयी और चमत्कारिक है-भगवान काल भैरव | Himalaya Gaurav" (अंग्रेज़ी में). मूल से 24 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-01-02.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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