"माण्डूक्योपनिषद": अवतरणों में अंतर
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! डयुसेन (1000 or 800 – 500 BC)!! रनाडे (1200 – 600 BC) !! राधा कृष्णन (800 – 600 BC) |
! डयुसेन (1000 or 800 – 500 BC)!! रनाडे (1200 – 600 BC) !! राधा कृष्णन (800 – 600 BC) |
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| '''अत्यंत प्राचीन उपनिषद गद्य शैली में:''' बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि, केन<br />'''कविता शैली में:''' केन, कठ, ईश, श्वेताश्वतर, मुण्डक<br />'''बाद के उपनिषद गद्य शैली में:''' प्रश्न, मैत्री, मांडूक्य||'''समूह I:''' बृहदारण्यक, |
| '''अत्यंत प्राचीन उपनिषद गद्य शैली में:''' बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि, केन<br />'''कविता शैली में:''' केन, कठ, ईश, श्वेताश्वतर, मुण्डक<br />'''बाद के उपनिषद गद्य शैली में:''' प्रश्न, मैत्री, मांडूक्य||'''समूह I:''' बृहदारण्यक, छान्दोग्य<br />'''समूह II:''' ईश, केन<br />'''समूह III:''' ऐतरेय, तैत्तिरीय, कौषीतकि<br />'''समूह IV:''' कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर<br />'''समूह V:''' प्रश्न, मांडूक्य, मैत्राणयी||''बुद्ध काल से पूर्व के:''' ऐतरेय, कौषीतकि, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, केन<br />'''मध्यकालीन:''' केन (1–3), बृहदारण्यक (IV 8–21), कठ, मांडूक्य<br />'''सांख्य एवं योग पर अधारित:''' मैत्री, श्वेताश्वतर |
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17:31, 16 अप्रैल 2014 का अवतरण
माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।
लेखक | वेदव्यास |
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रचनाकार | अन्य पौराणिक ऋषि |
भाषा | संस्कृत |
शृंखला | अथर्ववेदीय उपनिषद |
विषय | ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त |
शैली | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
प्रकाशन स्थान | भारत |
रचनाकाल
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—
- पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
- पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
- सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
- उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है[1]-
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संक्षिप्त विवरण
मांडूक्योपनिषद् अथर्ववेदीय ब्राह्मण भाग की उपनिषद् है। प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों की यह उपनिषद् उनमें आकार की दृष्टि से सब से छोटी है किंतु महत्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि बिना वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया गया है।
इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित हुआ है। कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है वह ऊँकार है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।
आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं। इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर "सप्तांगों" तथा इंद्रियादि 19 मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है। दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर सप्तांगों और 19 मुर्खी से जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है। तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।
परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह ने अंत: प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ, और न इन दोनों क संघात है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है (मंत्र 7)
ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है। सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।
वैश्वानर, तेजस, और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।
संदर्भ
- ↑ Ranade 1926, pp. 13–14
बाहरी कड़ियाँ
मूल ग्रन्थ
अनुवाद
- Translations of major Upanishads
- 11 principal Upanishads with translations
- Translations of principal Upanishads at sankaracharya.org
- Upanishads and other Vedanta texts
- डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा उपनिषदों का हिन्दी काव्य रूपान्तरण
- Complete translation on-line into English of all 108 Upaniṣad-s [not only the 11 (or so) major ones to which the foregoing links are meagerly restricted]-- lacking, however, diacritical marks